SPRITUAL
भगवद गीता प्रथमअध्याय – अर्जुन-विषादयोग | Bhagwad Geeta chapter -1

भगवत गीता अध्याय एक – अर्जुनविषादयोग
भगवद गीता का पहला अध्याय सम्पूर्ण गीता का सार है इसमें दोनों तरफ के प्रधान योद्धाओं के नाम गिनाये जाने के बाद मुख्य-रूप से अर्जुन के सगे सम्बन्धियों के नाश की आशंका से उत्पन्न मोह से प्रेरित शोक (विषाद) का वर्णन है। इसलिये इसका नाम ‘अर्जुन विषाद-योग ‘ है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 1)
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।१।।
अर्थ
धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा – हे संजय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए एकत्रित होने वाले मेरे और पाण्डु पुत्र इस समय क्या कर रहे है ?
संजय ने कहा – हे नरेश दोनों ओर की सेनाएं कुरुक्षेत्र में आ पहुंची है, गंगा पुत्र भीष्म और युवराज दृष्टधुम्न अपनी अपनी सेनाओं का नेतृत्व कर रहे है
संजय विद्वान सूत (बुनकर) गावाल्गण के पुत्र थे एवं ऋषि व्यास के शिष्य थे, वह धृतराष्ट्र के सारथी और सलाहकार भी थे
जब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में राजा धृतराष्ट्र और पाण्डु पुत्र, में युद्ध मोड पर खड़ा था तब महर्षी व्यास भीष्म और राजा धृतराष्ट्र से मिलने आए थे तब व्यास ने धृतराष्ट्र को कहा द्वार पे खड़े इस युद्ध को भीतर आने की आज्ञा न दीजिए, राजा धृतराष्ट्र खुद भी इस युद्ध को नहीं चाहते थे लेकिन उसके पुत्र भी उसके वश में न थे ,व्यास ने कहा मैं दिव्य दृष्टी तुम्हें दिए देता हूँ की इस सर्वनाश को तुम अपनी आँखों से होता हुए देखो लेकिन मोहवश धृतराष्ट्र भी इस विनाश को स्वयं अपनी आखों से नहीं देखना चाहते थे उन्होंने महर्षी व्यास को दिव्य दृष्टि संजय को देने के लिए अनुरोध किया जिस कारण संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 2)
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥
शब्दार्थ:
- दृष्ट्वा(drstva) = देखकर
तु(tu) = तो/फिर
पाण्डवानीकम् (pandavanikam) =
पाण्डवों की सेना
व्यूढम्(vyudham) = सुसज्जित/युद्ध में व्यवस्थित
दुर्योधनः(duryodhanaḥ) = दुर्योधन
तदा(tada) = तब
आचार्यम्(acharyam) = आचार्य (गुरु द्रोणाचार्य)
उपसङ्गम्य(upasangamya) = जाकर/समीप जाकर
राजा(raja)=राजा दुर्योधन
वचनम्(vachanam) = वचन/बात
अब्रवीत्(abravit) = कहा
अर्थ
युद्ध शुरू होने से पहले पांडवों की सुसज्जित सेना को देखकर दुर्योधन थोड़ा चिंतित और सतर्क हो गया और वह अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे बातचीत करने लगा।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 3)
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥
शब्दार्थ:
- पश्य (pasya) = देखिए
- एताम् (etam) = इसको / इसे
- पाण्डुपुत्राणाम् (paṇḍu-putranam) = पाण्डुपुत्रों (पाण्डवों) की
- आचार्य (acharya) = हे आचार्य (गुरु द्रोणाचार्य)
- महतीम् (mahateem) = विशाल
- चमूम् (chamum) = सेना
- व्यूढाम् (vyuḍham) = व्यवस्थित, सजी हुई
- द्रुपदपुत्रेण (drupada-putreṇa) = द्रुपद के पुत्र (धृष्टद्युम्न) द्वारा
- तव (tava) = आपके
- शिष्येण (sisyena) = शिष्य के द्वारा
- धीमता (dhimata) = बुद्धिमान
अर्थ:
हे आचार्य! पाण्डुपुत्रों की इस विशाल सेना को, जो आपके ही बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्युम्न) द्वारा व्यवस्थित की गई है।
यहाँ दुर्योधन, द्रोणाचार्य को व्यंग्य करते हुए कहता है — “गुरुजी, देखिए, आपकी ही पढ़ाई हुई विद्या का प्रयोग करके आपका ही शिष्य (धृष्टद्युम्न) पाण्डवों की सेना को सजा रहा है और हमारे खिलाफ खड़ा है।”
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 4)
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥४॥
शब्दार्थ:
- अत्र (atra) = यहाँ (इस सेना में)
- शूराः (surah) = पराक्रमी योद्धा
- महेष्वासा (maheṣvasah) = महान धनुर्धारी
- भीमार्जुनसमा (bhima-arjun-samaḥ) = युद्ध में भीम और अर्जुन के समान
- युधि (yudhi) = युद्ध में
- युयुधानो (yuyudhanoh) = युयुधान (सत्यकि)
- विराटश्च (viratascha) = और विराट
- द्रुपदश्च (drupadaḥ ca) = और द्रुपद
- महारथः (maharataḥa) = महान रथी (महायोद्धा)
अर्थ:
इस सेना में पराक्रमी और महान धनुर्धारी योद्धा उपस्थित हैं, जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं — जैसे युयुधान (सत्यकि), विराट और महारथी द्रुपद।
इस श्लोक में दुर्योधन, पाण्डवों की सेना में मौजूद वीर योद्धाओं का उल्लेख करना शुरू करता है, ताकि द्रोणाचार्य को दिखा सके कि विपरीत पक्ष कितना मज़बूत है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 5)
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥
शब्दार्थ:
- धृष्टकेतु (dhrstaketu) = धृष्टकेतु
- च (cha) = और
- चेकितानः (chekitanah) = चेकितान
- काशिराजश (kashirajasḥ) = काशी का राजा
- च (ca) = और
- वीर्यवान् (viryavaan) = पराक्रमी
- पुरुजित् (purujit) = पुरुजित
- कुन्तिभोजश (kuntibhojash) = कुन्तिभोज
- च (cha) = और
- शैब्यश (saibyash) = शैब्य
- च (cha) = और
- नरपुङ्गवः (nara-pungavah) = श्रेष्ठ पुरुष, उत्तम योद्धा
अर्थ:
इस सेना में धृष्टकेतु, चेकितान, पराक्रमी काशीराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और शैब्य जैसे योद्धा भी उपस्थित हैं।
यहाँ दुर्योधन और भी योद्धाओं के नाम गिनाकर बताता है कि पाण्डवों की सेना में कितने पराक्रमी और महान योद्धा एकत्रित हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 6)
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥६॥
शब्दार्थ:
- युधामन्युश (yudhamanyusḥ) = युधामन्यु
- च (cha) = और
- विक्रान्त (vikrant) = पराक्रमी
- उत्तमौजाश (uttamaujash) = उत्तमौजा
- च (cha) = और
- वीर्यवान् (viryavaan) = पराक्रमी
- सौभद्रो (saubhadroh) = सुभद्रा का पुत्र (अभिमन्यु)
- द्रौपदेयाश (draupadeyash) = द्रौपदी के पुत्र
- च (ca) = और
- सर्वे एव (sarve eva) = सभी
- महारथाः (maharathah) = महान योद्धा
अर्थ:
इस सेना में पराक्रमी युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के सभी पुत्र, ये सब महायोद्धा भी उपस्थित हैं।
दुर्योधन और आगे पाण्डवों की सेना की ताक़त का वर्णन करता है, और विशेषकर अभिमन्यु (अर्जुन का पुत्र) और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को की उपस्तिथि से अवगत कराता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 7)
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥७॥
शब्दार्थ:
- अस्माकम् (asmakam) = हमारे
- तु (tu) = तो / अब
- विशिष्टा (visista) = प्रमुख / विशेष
- ये (ye) = जो
- तान् (tan) = उन्हें
- निबोध (nibodha) = जान लीजिए
- द्विजोत्तम (dvijottama) = हे श्रेष्ठ द्विज (हे ब्राह्मणश्रेष्ठ द्रोणाचार्य)
- नायका (nayaka) = सेनापति / मुख्य वीर
- मम (mama) = मेरे
- सैन्यस्य (sainyasya) = सेना के
- संज्ञार्थ (sangyarth) = जानकारी के लिए
- तान् ब्रवीमि ते (tan bravimi te) = मैं आपको बताता हूँ
अर्थ:
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ (आचार्य द्रोणाचार्य)! अब आप मेरी सेना के उन प्रमुख योद्धाओं का नाम भी जान लीजिए, जो सेना का संचालन करने में विशेष योग्यता रखते है।
यहाँ तक दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना की ताक़त और उनके महान योद्धाओं का नाम सहित वर्णन किया। अब वह अपनी सेना के महान योद्धाओं के नाम गिनाना शुरू करता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 8)
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥८॥
शब्दार्थ:
- भवान् (bhavan) = आप स्वयं (गुरु द्रोणाचार्य)
- भीष्मः च (bhishma cha) = और भीष्म पितामह
- कर्णः च (karna cha) = और कर्ण
- कृपः च (krpah cha) = और कृपाचार्य
- समिति-ज्ययः (samitin-jayah) = युद्ध में विजयी
- अश्वत्थामा (asvatthama) = अश्वत्थामा (द्रोणाचार्य का पुत्र)
- विकर्णः च (vikarnah cha) = और विकर्ण
- सौमदत्तिः (saumadattiḥ) = सोमदत्त का पुत्र (भूरिश्रवा)
- तथा एव च (tatha eva cha) = और भी
अर्थ:
आप स्वयं (गुरु द्रोणाचार्य), भीष्म पितामह, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा — ये सब मेरे सेना के विजयी योद्धा हैं।
दुर्योधन अपनी सेना के महायोद्धाओं का वर्णन शुरू करता है और गुरु द्रोणाचार्य का सम्मानपूर्वक सबसे पहले उनका नाम लेता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 9)
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥९॥
शब्दार्थ:
- अन्ये च (anye cha) = और भी
- बहवः (bahavah) = अनेक
- शूराः (surah) = पराक्रमी
- मदर्थे (mad-arthe) = मेरे लिए
- त्यक्त-जीविताः (tyakta-jivitah) = प्राणों की आहुति देने को तैयार
- नाना-शस्त्र-प्रहरणाः (nana-shastra-praharanah) = भिन्न-भिन्न शस्त्रों से सुसज्जित
- सर्वे (sarve) = सभी
- युद्ध-विशारदाः (yuddha-visharadaḥ) = युद्ध-कला में निपुण
अर्थ:
इसके अतिरिक्त, और भी अनेक पराक्रमी योद्धा हैं जो मेरे लिए प्राणों की आहुति देने को तैयार हैं। वे सभी विभिन्न शस्त्रों से सुसज्जित और युद्ध-कला में निपुण हैं।
यहाँ दुर्योधन यह बताता है कि उसकी सेना में केवल बड़े-बड़े नामी योद्धा ही नहीं, बल्कि असंख्य वीर सैनिक भी हैं, जो उसके लिए प्राणो की आहुति देने को तत्पर हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 10)
अपार्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१०॥
शब्दार्थ:
- अपर्याप्तं (aparyaptam) = अपर्याप्त / कम
- तद् अस्माकम् (tad asmakam) = वह हमारी
- बलम् (balam) = शक्ति / सेना
- भीष्माभिरक्षितम् (bhismabhirakshitam) = भीष्म द्वारा संरक्षित
- पर्याप्तं (paryaptam) = पर्याप्त
- त्वम् (tvam) = वह
- इदमेतेषां (idmetesham) = इन सबकी
- बलम् (balam) = सेना
- भीष्माभिरक्षितम् (bhismabhirakshitam) = भीष्म द्वारा संरक्षित
अर्थ:
हमारी सेना, भीष्म पितामह द्वारा संरक्षित है, जिनकी शक्ति पर्याप्त है।
वहीं, पाण्डवों की सेना, भीम द्वारा संरक्षित है लेकिन उनकी शक्ति पर्याप्त नहीं है।
दुर्योधन पाण्डवों की सेना की ताक़त के आगे अपनी सेना की तुलना कर रहा है। वह बता रहा है कि भीष्म हमारी रक्षा कर रहे हैं, परन्तु पाण्डवों की सेना भीम द्वारा संरक्षित है लेकिन उसका नेतृत्व भीष्म के सामने नगण्य है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 11)
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥११॥
शब्दार्थ:
- अयनेषु च (ayaneshu cha) = सभी सेनापथों में / युद्ध की पंक्तियों में
- सर्वेषु (sarveṣu) = सभी में
- यथा-भागम् (yatha-bhagam) = अपने-अपने हिस्से के अनुसार
- अवस्थिताः (avasthitaḥ) = स्थित / खड़े
- भीष्म एव (bhiṣma eva) = केवल भीष्म
- अभिरक्षन्तु (abhirakṣhantu) = उनकी रक्षा करें
- भवन्तः (bhavantaḥ) = आप लोग
- सर्वे एव हि (sarve eva hi) = सभी वास्तव में
अर्थ:
हे मेरे सेनापतियों! आप सभी अपने अपने मोर्चो में खड़े हो जाएँ।
सभी योद्धा भीष्म पितामह के सहयोग में खड़े हों व सभी योद्धाओं की रक्षा भीष्म पितामह करें।
यहाँ दुर्योधन अपने सेनापतियों को आदेश दे रहा है कि वे अपने-अपने स्थानों पर खड़े हों और सेना का संचालन भीष्म पितामह के नेतृत्व में करें ।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 12)
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥
शब्दार्थ:
- तस्य (tasya) = उसके (दुर्योधन की सेना के उद्दीपन के समय)
- सञ्जनयन् (sanjanayan) = उत्पन्न कर रहे / जगाया
- हर्षम् (harsham) = उत्साह / आनंद / उमंग
- कुरु-वृद्धः (kuru-vrddhah) = कुरु वंश का वृद्ध, यानी भीष्म पितामह
- पितामहः (pitamaha) = पितामह (भीष्म)
- सिंहनादम् (siṃhanadam) = सिंह की तरह गरजने की आवाज़
- विनद्योच्चैः (vinadyocchaiḥ) = जोर से बजाए
- शङ्खम् (sankham) = शंख
- दध्मौ (dadhmau) = बजाया
- प्रतापवान् (pratapavan) = वीर, प्रभावशाली, उत्साहपूर्ण
अर्थ:
भीष्म पितामह ने उस समय दुर्योधन की सेना में उत्साह और वीरता उत्पन्न करने के लिए, सिंह के गरजने जैसी आवाज़ के साथ जोर से शंख बजाया, जिससे दुर्योधन उत्साहपूर्ण हो गया तथा युद्ध की तैयारी और भी प्रभावशाली दिखाई देने लगी।
यहाँ दृश्य यह है कि युद्ध के प्रारंभ में भीष्म पितामह अपने योद्धाओ और सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहे हैं, और शंख-ध्वनि से सिंह के गरजने जैसी आवाज़ के साथ सेना में उत्साह पैदा कर रहे हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 13)
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥
शब्दार्थ:
- ततः (tatah) = फिर
- संखाश्चा (sankhascha) = शंख
- भेर्यश्चा (bheryeshcha) = युद्ध के ढोल
- अणव-कगोमुखाः (anava-kagomukhaḥ) = विशेष प्रकार के शस्त्र-ध्वनि उपकरण
- सहसैव (sahasai eva) = एक साथ / अचानक
- अभ्यहन्यन्त (abhyahanyanta) = बजाए गए / फूँके गए
- सः (saḥ) = वह
- शब्दः (sabdaḥ) = ध्वनि / आवाज़
- तुमुलः (tumuloh) = गड़गड़ाती / प्रचंड
- अभवत् (abhavat) = हो गई / उत्पन्न हुई
अर्थ:
उसके बाद, शंख, ढोल और अन्य युद्ध उपकरण एक साथ जोर-जोर से बजाए गए, जिससे बहुत गड़गड़ाती, प्रचंड कोलाहल की ध्वनि उत्पन्न हुई।
इस श्लोक में युद्ध की शुरुआत में सेना की पूरी तैयारी और जोरदार ध्वनि का दृश्य दिखाया गया है, जिससे दुश्मन भयभीत और अपनी सेना का मनोबल बढ़ा हुआ महसूस होता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 14)
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१४॥
शब्दार्थ:
- ततः (tataḥ) = उसके बाद
- श्वेतैः (svetaiḥ) = सफेद
- हयैः युक्ते (hayaiḥ yukte) = घोड़ों से युक्त, घोड़ों द्वारा खींचे हुए रथ में
- महति स्यन्दने (mahati syandane) = बड़े रथ पर / भव्य रथ में
- स्थितौ (sthitau) = स्थित थे / खड़े थे
- माधवः (Madhavah) = कृष्ण
- पाण्डवः (pandavah) = पाण्डव अर्जुन
- च (cha) = और
- एव (eva) = निश्चित रूप से
- दिव्यौ शङ्खौ (divyau sankhau) = दिव्य, अद्भुत शंख
- प्रदध्मतुः (pradadhmatuḥ) = बजाए गए / फूँके गए
अर्थ:
तत्पश्चात, सफेद घोड़ों से खींचे जा रहे भव्य रथ पर स्थित कृष्ण और अर्जुन ने दिव्य शंख फूँके, जिनकी ध्वनि बहुत ही अद्भुत और प्रभावशाली थी।
इस श्लोक में युद्ध की शुरुआत में पाण्डवों के प्रमुख योद्धा (कृष्ण और अर्जुन) की तैयारियों और शंख ध्वनि का दृश्य दर्शाया गया है। (कृष्ण और अर्जुन) की शंख ध्वनि को अद्भुत और अलौकिक कहा गया है
यह दिखाता है कि युद्ध में आध्यात्मिक और भौतिक शक्ति दोनों विधमान है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 15)
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥१५॥
शब्दार्थ:
- पाञ्चजन्यं (Pancajanyam) = पाञ्चजन्य नामक शंख (भगवान श्रीकृष्ण का शंख)
- हृषीकेशः (Hrsikesah) = इन्द्रियों के स्वामी (श्रीकृष्ण)
- देवदत्तं (Devadattam) = देवदत्त नाम का शंख (अर्जुन का शंख)
- धनञ्जयः (Dhananjayah) = धन जीतने वाले (अर्जुन)
- पौण्ड्रं (Paundram) = पौण्ड्र नामक शंख
- दध्मौ (Dadhmau) = बजाया
- महाशङ्खं (Mahasankham) = विशाल शंख
- भीमकर्मा (Bhimakarma) = भयानक कार्य करने वाला
- वृकोदरः (Vrkodarah) = वृक उदर (भेड़िये के पेट जैसा), भीम का एक नाम
अर्थ:
हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया।
धनञ्जय (अर्जुन) ने अपना देवदत्त शंख बजाया।
और भीमकर्मा वृकोदर (भीमसेन) ने अपना विशाल पौण्ड्र शंख बजाया।
इस श्लोक में तीनों प्रमुख योद्धाओं (कृष्ण, अर्जुन और भीम) पाञ्चजन्यं, देवदत्त और पौण्ड्र की शंख-ध्वनि का वर्णन है, जिससे पूरे युद्धभूमि में गूँज उत्पन्न हो गई। ये शंख उनके पराक्रम और विशिष्ट पहचान का प्रतीक हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 16)
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१६॥
शब्दार्थ:
- अनन्तविजयम् (Anantavijayam) = अनन्तविजय नाम का शंख
- सुघोष-मनिपुष्पकौ (Sughoṣa-Maṇipuṣpakau) = सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख
अर्थ:
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनन्तविजय शंख बजाया।
नकुल और सहदेव ने क्रमशः अपने-अपने सुघोष और मणिपुष्पक शंख बजाए।
इस श्लोक में पाण्डवों के बाकी भाइयों (युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव) की शंख-ध्वनि का वर्णन है।
हर शंख का नाम उनके चरित्र और गुणों का प्रतीक है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 17)
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१७॥
शब्दार्थ:
- काश्यः (Kasya) = काशी का राजा
- च (cha) = और
- परम-इष्वासः (param-esvasah) = महान धनुर्धर
- शिखण्डी (shikhandi) = शिखण्डी
- महारथः (maharathah) = महान रथी / पराक्रमी योद्धा
- धृष्टद्युम्नः (Dhrstadyumnah) = धृष्टद्युम्न (द्रुपद का पुत्र)
- विराटः (Viratah) = विराट (मत्स्य देश का राजा)
- सात्यकिः (Satyakih) = सात्यकि (यादव वंश का वीर, श्रीकृष्ण का शिष्य)
- अपराजितः (aparajitah) = जिसे कोई हरा न सके / अजित शंख
अर्थ:
काशी का राजा जो महान धनुर्धर था, शिखण्डी जो एक महान रथी था, धृष्टद्युम्न विराट राजा और सात्यकि जो सदैव अपराजित थे इन सबने भी अपने शंख बजाए।
पाण्डवों के साथ खड़े अन्य शक्तिशाली सहयोगियों की शंख-ध्वनि ने पाण्डव सेना के उत्साह को और भी बढ़ा दिया।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 18)
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१८॥
शब्दार्थ:
- द्रुपदः (Drupadaḥ) = द्रुपद (पाँचाल देश के राजा, द्रौपदी के पिता)
- द्रौपदेयाः (Draupadeyaḥ) = द्रौपदी के पुत्र (पाँचों पाण्डव-पुत्र)
- सर्वशः (Sarvasah) = सब ओर से / सभी ने
- पृथिवी-पते (Prthivi-pate) = हे पृथ्वीपति (धृतराष्ट्र को संबोधन)
- सौभद्रः (Saubhadraḥ) = सुभद्रा का पुत्र (अभिमन्यु)
- महाबाहुः (Mahabahu) = महाबाहु / बलवान बाहु वाला
- शङ्खान् दध्मुः (sankhan dadhmuḥ) = शंख बजाए
- पृथक् पृथक् (Pṛthak-pṛthak) = अलग-अलग, भिन्न-भिन्न
अर्थ:
राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्र (द्रौपदेय),और सुभद्रा का पुत्र महाबली अभिमन्यु । इन सब ने भी अपने-अपने शंख अलग-अलग बजाए।
पाण्डव सेना के अन्य वीर योद्धाओं (द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र और अभिमन्यु) की शंख-ध्वनि ने युद्धभूमि को और अधिक प्रचंड व ऊर्जावान वातावरण से भर दिया।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 19)
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥१९॥
शब्दार्थ:
- स घोष (sa ghoṣa) = शंखों की गूंज
- धार्तराष्ट्राणाम् (dhartarastranam) = धृतराष्ट्र के पुत्रों की
- हृदयानि (hrdayani) = हृदयों को
- व्यदारयत् (vyadarayat) = कंपा दिया / विदीर्ण कर दिया
- नभः (nabhah) = आकाश
- पृथिवीम् (prthivim) = पृथ्वी को
- चैव (chav) = तथा
- तुमुलः (tumula) = प्रचंड / गड़गड़ाहट भरी
- अभ्यनुनादयन् (abhy-anunadayan) = गूंज उठा / प्रतिध्वनित हुआ
अर्थ:
पाण्डवों और उनके सहयोगियों द्वारा बजाए गए शंखों की भयावह और प्रचंड ध्वनि ने धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया, उनके मन में भय उत्पन्न कर दिया। यह ध्वनि इतनी प्रबल थी कि आकाश और पृथ्वी में गूंज उत्पन्न हो गयी ।
जब भीष्म पितामह, दुर्योधन व अन्य वीरों ने अपने-अपने शंख बजाये तो पाण्डवों के हृदय विदीर्ण नहीं हुए
परन्तु पाण्डवों की शंखध्वनि से कौरवों के मनोबल पर गहरा प्रभाव पड़ा, युद्ध शुरू होने से पहले ही उनके हृदय भय से विचलित होने लगे।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 20)
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥२०॥
शब्दार्थ:
- अथ (atha) = तब / इसके बाद
- व्यवस्थितान् (vyavasthitan) = व्यवस्थित खड़े हुए / युद्ध के लिए तैयार
- दृष्ट्वा (drstva) = देखकर
- धार्तराष्ट्रान् (dhartarastran) = धृतराष्ट्र के पुत्रों को
- कपिध्वजः (kapidhvajah) = कपि (हनुमान) के ध्वज वाला अर्जुन
- प्रवृत्ते (pravrtte) = आरम्भ होने पर
- शस्त्र-सम्पाते (sastra-sampate) = शस्त्रों की भिड़न्त / युद्ध के प्रारम्भ
- धनुः उद्यम्य (dhanuh udyamya) = धनुष उठाकर
- पाण्डवः (pandavah) = अर्जुन
- हृषीकेशम् (hrsīkesam) = भगवान श्रीकृष्ण (इन्द्रियों के स्वामी)
- तदा (tada) = तब
- वाक्यम् (vakyam) = वचन / बात
- इदम् आह (idam aha) = यह कहा
- महीपते (mahipate) = हे पृथ्वीपति (धृतराष्ट्र को संबोधित)
अर्थ:
कपिध्वज अर्जुन अपना धनुष उठाकर तीर चलाने के लिए तत्त्पर हुआ और उधर धृतराष्ट्र के पुत्रों को युद्ध के लिए रणभूमि में देखकर श्रीकृष्ण से यह वचन कहा।
अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिह्न था जो विजय का सूचक है भगवान् कृष्ण विष्णु के अवतार है जो त्रेता युग में राम के रूप में प्रकट हुए थे और जहाँ भी राम रहते हैं वहाँ उनका नित्य सेवक हनुमान तो होते ही है जिसके साथ स्वयं राम कृष्णा हो उसको किसी का भय कहा हो सकता है।
इस क्षण को युद्धभूमि का अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण बताया गया है क्यूँकि अर्जुन अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण से संवाद करना शुरू करते हैं और यहीं से गीता का संवाद प्रारंभ होता है।।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 21, श्लोक 22)
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ॥ २१॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥२२॥
शब्दार्थ:
- सेनयोः उभयोः मध्ये = दोनों सेनाओं के बीच
- रथं स्थापय = मेरा रथ स्थापित कीजिए
- मे = मेरे लिए
- अच्युत = (कृष्ण)
- यावत् = जब तक
- एतान् = इन लोगों को
- निरीक्षे अहं = मैं देख लूँ
- योद्धुकामान् = युद्ध करने की इच्छा वाले
- अवस्थितान् = स्थित (खड़े हुए)
- कैः मया सह योद्धव्यम् = किनके साथ मुझे युद्ध करना है
- अस्मिन् रण-समुद्यमे = इस युद्ध में, जो आरंभ हुआ है
अर्थ:
“हे अच्युत! आप मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिए ताकि मैं इन युद्ध के इच्छुक लोगों को देख सकूँ और जान सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किन के साथ लड़ना होगा।”
भगवान् अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसीलिए अर्जुन ने श्री कृष्णा को यहाँ अच्युत कहा है, यहाँ अर्जुन के मन में जिज्ञासा है – वह देखना चाहता है कि उसके सामने कौन-कौन उसके विरोध में खड़े हैं। यद्यपि वह जानता है कि वे कौरव हैं, परंतु जब वह उन्हें अपनों, गुरुओं, बंधु-बांधवों के रूप में देखता है, तभी उसके भीतर विषाद (मोह) उत्पन्न होता है।
यह क्षण अर्जुन विषाद योग की शुरुआत है जब कर्म-कर्तव्य और भावनाओं के बीच संघर्ष प्रारंभ होता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 22, श्लोक 23)
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥२३॥
शब्दार्थ:
- योत्स्यमानान् = जो युद्ध करने वाले हैं
- अवेक्षे अहम् = मैं देखना चाहता हूँ
- यः एते अत्र समागताः = जो यहाँ एकत्र हुए हैं
- धार्तराष्ट्रस्य = धृतराष्ट्र के पुत्र के
- दुर्बुद्धेः = दुष्ट बुद्धि वाले
- युद्धे प्रियचिकीर्षवः = युद्ध में जिन्हें प्रसन्न करने की इच्छा रखते हैं
अर्थ:
“मैं उन लोगों को देखना चाहता हूँ जो यहाँ युद्ध के लिए उपस्थित हुए हैं और जो इस दुष्ट बुद्धि वाले धृतराष्ट्रपुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने के इच्छुक हैं।”
इस श्लोक में अर्जुन के मन की स्थिति और स्पष्ट होती है ।
वह युद्ध को धर्मयुद्ध के रूप में नहीं, बल्कि कौरवों की अन्यायपूर्ण जिद के रूप में देख रहा है।
वह सोचता है कि जो भी इस “दुर्बुद्धि दुर्योधन” के पक्ष में हैं, वे भी अधर्म में सहभागी हैं।
इसलिए वह यह देखना चाहता है कि कौन-कौन उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है।
यहीं से आगे चलकर अर्जुन का हृदय करुणा से भरने लगता है और वह युद्ध से विमुख होने लगता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 24)
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥
शब्दार्थ:
- एवम् उक्तः = इस प्रकार कहे जाने पर
- हृषीकेशः = भगवान श्रीकृष्ण (जो इंद्रियों के स्वामी हैं)
- गुडाकेशेन = अर्जुन द्वारा (जो नींद पर विजय प्राप्त करने वाले हैं)
- भारत = हे भारत (धृतराष्ट्र) !
- सेनयोः उभयोः मध्ये = दोनों सेनाओं के बीच में
- स्थापयित्वा = स्थापित करके
- रथोत्तमम् = श्रेष्ठ रथ (अर्जुन का रथ)
अर्थ:
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – हे भारत
जब गुडाकेश (अर्जुन) ने कृष्णा से इस प्रकार कहा, तब हृषीकेश (भगवान श्रीकृष्ण) ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के बीच स्थापित किया।
यह श्लोक उस क्षण का वर्णन करता है जब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के कहने पर उसका रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले जाते हैं। यह दृश्य अत्यंत गूढ़ है – यह धर्म और अधर्म के संघर्ष के मध्य में धर्म का केंद्र बनने का प्रतीक है।
यहाँ “हृषीकेश” का अर्थ है – नींद पर विजय, वो नींद जो अज्ञान की है अज्ञान के अँधेरे मे मनुष्य धर्म विपरीत कार्य करता है जो यहाँ कौरव कर रहे है और जो प्राणी अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, तब ही वह सही निर्णय कर सकता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 25)
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥२५॥
शब्दार्थ:
- भीष्म-द्रोण-प्रमुखतः = भीष्म और द्रोणाचार्य को आगे रखकर
- सर्वेषाम् च महीक्षिताम् = और अन्य सब राजाओं (पृथ्वी के स्वामियों) के सामने
- उवाच = कहा
- पार्थ = हे पार्थ (अर्जुन)!
- पश्य = देखो
- एतान् = इनको
- समवेतान् = एकत्र हुए
- कुरून् इति = इन कौरवों को
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्म, द्रोण और अन्य समस्त राजाओं के सामने रथ को रोककर अर्जुन से कहा –
“हे पार्थ ! देखो, ये सब कौरव यहाँ एकत्र हुए हैं।”
इस क्षण भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्धभूमि की वास्तविकता से सामना कराया।
उन्होंने रथ को ऐसे स्थान पर रोका जहाँ अर्जुन को उसके गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म और अनेक संबंधी सामने खड़े दिखें, यह दृश्य अर्जुन के भीतर करुणा और मोह को जगाने वाला है ।
यहाँ श्रीकृष्ण केवल रथ-चालक नहीं, बल्कि जीवन के भी सारथी हैं –
कृष्णा अर्जुन को दिखाते चाहते हैं कि संघर्ष से पहले वास्तविकता को देखना अत्यंत आवश्यक है क्यूँकि भगवान् जानते है की अर्जुन के मन में मोह उत्पन्न होना प्राकृतिक है और इसे युद्ध आरम्भ होने से पहले ही समाप्त करना अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 26)
तत्रापश्यत्स्थितान्यार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥२६॥
शब्दार्थ:
- तत्र, अपश्यत्, स्थितान्= वहाँ, देखा, खड़े हुए
- पार्थः,पितॄन् = अर्जुन, अपने पिता समान बड़ों को
- अथ, तथा = और, और भी
- पितामहान्, आचार्यान् = पितामहों को (जैसे भीष्म), गुरुओं को (जैसे द्रोणाचार्य)
- मातुलान्, भ्रातृन्, पुत्रान्, पौत्रान्, सखीन् = मामा लोगों को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को, मित्रों को
- श्वशुरान्, सुहृदः च एव = ससुरों को, और शुभचिंतकों को भी
- सेनयोः उभयोः अपि = दोनों ही सेनाओं में
अर्थ:
अर्जुन ने कि दोनों सेनाओं में अपने ही पिता, पितामह, गुरु, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, मित्र, ससुर और शुभचिंतक खड़े देखा है।
अर्जुन देख रहा था कि जिनसे उसे स्नेह है, वे सब युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं, यहीं अर्जुन की विषाद अवस्था की शुरुआत होती है। अर्जुन अपने ही प्रियजनों को रणभूमि में एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा देखता है, तो उसका हृदय द्रवित होने लगता है और उसके मन युद्ध से विचलन होने की अवस्था बनने लगती है।
यहीं से अर्जुन के भीतर आध्यात्मिक प्रश्नों का उदय होना शुरू होता है, जो आगे चलकर गीता के उपदेश में परिवर्तित होता हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 27)
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥२७॥
शब्दार्थ:
- तान् = उन (समस्त योद्धाओं को)
- समीक्ष्य = विचारपूर्वक देख कर
- सः कौन्तेयः = कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
- सर्वान् बन्धून् = अपने सब संबंधियों को
- अवस्थितान् = युद्ध के लिए खड़े हुए
- कृपया परया आविष्टः = अत्यंत दया से व्याप्त होकर
- विषीदन् = शोक से व्याकुल होकर
- इदम् अब्रवीत् = यह कहा
अर्थ:
जब अर्जुन ने अपने सभी संबंधियों को युद्धभूमि में एक-दूसरे के सामने खड़ा देखा, तो वह अत्यंत दया से व्याप्त होकर करुणा से भर गया। उसके मन में शोक, दया और मोह उमड़ने लगे, और उस अवस्था में उसने श्री कृष्ण से यह कहा।
वह कहने लगा – “मैं अपने बंधुओं को मारकर क्या प्राप्त करूंगा ?”
यहाँ से अर्जुन के आंतरिक संघर्ष की शुरुआत होती है। निसंदेह वह एक वीर योद्धा था, परंतु जब उसने अपने प्रियजनों, गुरुओं और मित्रों को मृत्यु के सामने खड़ा देखा, तो उसका धर्म, कर्तव्य और भावना – तीनों आपस में टकराने लगे।
यहीं से भगवद्गीता का उपदेश आरंभ होता है – क्योंकि अर्जुन के इस विषाद से ही भगवान श्रीकृष्ण उसे कर्म, ज्ञान और भक्ति का अमर संदेश देने वाले हैं।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 28)
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥२८॥
शब्दार्थ:
- दृष्ट्वा = देखकर
- इमम् = इस
- स्वजनम् = अपने ही लोगों (स्वजनों) को
- कृष्ण = हे कृष्ण!
- युयुत्सुम् = युद्ध की इच्छा रखने वाले
- समुपस्थितम् = सामने खड़े हुए
- सीदन्ति = ढीले पड़ रहे हैं, शिथिल हो रहे हैं
- मम = मेरे
- गात्राणि = अंग (शरीर के अवयव)
- मुखम् च = और मुख भी
- परिशुष्यति = सूख रहा है
अर्थ:
हे कृष्ण ! जब मैं अपने स्वजनों को युद्ध करने के लिए तत्पर खड़ा देख रहा हूँ, तो मेरे अंग शिथिल हो जाते हैं, और मेरा मुख सूखने लगा है।
मोह संसार का वो जटिल तत्व है जिससे पार पाना सांसारिक मनुष्य के लिए बिना ईश्वर की कृपा के संभव नहीं है अर्जुन युद्ध कला में पूर्णतयः निपुण था परन्तु मोह के कारण उसका शरीर शस्त्र का भार उठाने में असमर्थ महसूस कर रह था।
यहाँ अर्जुन के आंतरिक क्लेश का पहला शारीरिक लक्षण प्रकट होता है। उसके हृदय में करुणा और मोह का तूफ़ान उठता है। वह रणभूमि में अपने ही प्रिय स्वजनों को देखकर भावनात्मक रूप से टूटने लगता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 29)
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥२९॥
शब्दार्थ:
- वेपथुः च — और कम्पन (काँपना) भी
- शरीरे मे — मेरे शरीर में
- रोम-हर्षः च जायते — रोमांच (रोम खड़े हो जाना) हो रहा है
- गाण्डीवम् — अर्जुन का प्रसिद्ध धनुष (गाण्डीव)
- स्रंसते हस्तात् — हाथ से फिसल रहा है
- त्वक् च एव परिदह्यते — और त्वचा जलने सी प्रतीत हो रही है
अर्थ:
मेरे शरीर में कँपकँपी हो रही है, रोम-रोम खड़ा हो रहा हैं, मेरा गाण्डीव धनुष भी हाथ से गिर रहा है, और मेरी त्वचा जलने जैसी लग रही है।
यहाँ अर्जुन का विषाद केवल दुर्बलता नहीं है बल्कि आध्यात्मिक जागरण की भूमिका है।
यहाँ अर्जुन की आंतरिक अशांति का प्रदर्शन हो रहा है उसका शरीर अब भय, करुणा और असमंजस से काँप उठा है। गाण्डीव – जो उसका शौर्य और आत्मविश्वास का प्रतीक था अब उसके हाथ से फिसलने लगा है
जब मन मोह, दया या भय से भर जाता है, तब बुद्धि और शक्ति दोनों साथ छोड़ देती हैं अर्थात उसका धर्म-बल और मानसिक संतुलन डगमगाने लगा है। यही भावनात्मक बिंदु आगे चलकर गीता के उपदेश की शुरुआत बनता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 30)
न च शकोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥३०॥
शब्दार्थ:
- न च शकॊमि = और मैं समर्थ नहीं हूँ
- अवस्थातुम् = स्थिर खड़े रहने में
- भ्रमति इव = मानो चक्कर खा रहा हो
- च मे मनः = मेरा मन भी
- निमित्तानि च पश्यामि = और मैं देख रहा हूँ अनेक संकेत
- विपरीतानि = अशुभ, विपरीत
- केशव = कृष्ण
अर्थ:
हे केशव! मैं अब स्थिर खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ, मेरा मन भ्रमित हो रहा है, और मुझे चारों ओर अशुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं।
अर्जुन की आत्मिक अशांति चरम पर पहुँच रही है। वह न केवल शारीरिक रूप से कमजोर पड़ गया है,
बल्कि अब उसकी मानसिक स्थिति भी अस्थिर हो गई है उसका मन भ्रमित हो गया है – यानि सही-गलत का भेद मिट गया है। उसे यह युद्ध अब अशुभ परिणामों वाला प्रतीत हो रहा है।
यह वही क्षण है जहाँ अर्जुन अपने कर्तव्य (धर्म) और भावना (स्नेह) के बीच फँस जाता है। जब मन मोह, भय या दुविधा में फँसता है, तब बाहरी संसार भी हमें विपरीत और भयावह दिखने लगता है।
“विपरीतानि निमित्तानि” : यानी जब भीतर शांति नहीं होती, तो बाहर भी सब कुछ अशांत प्रतीत होता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 31)
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥
शब्दार्थ:
- न च = और नहीं ही
- श्रेयः अनुपश्यामि = कोई कल्याण (भला परिणाम) देखता हूँ
- हत्वा = मारकर
- स्वजनम् = अपने ही स्वजनों को
- आहवे = युद्ध में
- न काङ्क्षे = इच्छा नहीं है
- विजयम् = विजय की
- न च राज्यं = न राज्य की
- सुखानि च = और न सुखों की
अर्थ:
हे कृष्ण ! मुझे अपने ही स्वजनों को युद्ध में मारकर कोई भलाई नहीं दिखती। मुझे न विजय की इच्छा है, न राज्य की, और न ही सुखों की।
अर्जुन के भीतर अब धर्म स्थापना का कोई चिंतन नहीं है वह मानवीय भावनाओं के स्तर पर सोच रहा है तथा गहन वैराग्य और मोह के भीतर समाहित हो रहा है। वह युद्ध की सफलता को भी व्यर्थ मान रहा है क्योंकि अपने ही स्वजनों के वध से प्राप्त राज्य और सुख उसके लिए अर्थहीन हो गए है।
जब मन मोह से बंधा होता है, तो वह सुख-दुःख, विजय-पराजय, और कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद नहीं कर पाता और ना ही धर्म और आत्मा के स्तर पर सोच पाता
अर्जुन के इस विषाद के पीछे अज्ञान से उत्पन्न हुई करुणा व स्वजन प्रेम है, जिसे श्रीकृष्ण “अशोच्यानन्वशोचः” (अध्याय 2, श्लोक 11) में दूर करते है ।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 32)
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥३२॥
शब्दार्थ:
- किम् नः राज्येन = हमें राज्य से क्या लाभ?
- गोविन्द = हे गोविन्द (कृष्ण)
- किम् भोगैः जीवितेन वा = भोगों या जीवन से ही क्या प्रयोजन है?
- येषाम् अर्थे = जिनके लिए
- काङ्क्षितम् नः = हमने चाहा था
- राज्यम्, भोगाः, सुखानि च = राज्य, भोग और सुख
अर्थ:
हे गोविन्द! मुझे इस राज्य, भोग या जीवन से क्या लाभ है, जबकि जिनके लिए हमने ये सब चाहा था, वे ही अब युद्धभूमि में हमारे सामने खड़े होकर मरने वाले हैं।
राज्य, धन, भोग इन सबका मूल्य तब तक है जब तक अपने प्रियजन साथ हों यदि वे ही न रहें, तो इन सबका क्या अर्थ? इस समय अर्जुन का दृष्टिकोण भावना से भर कर सांसारिक हो गया है, वो भूल रहा है की आध्यात्मिक दृश्टिकोण से धर्म बड़ा होता है ।।
अर्जुन यहाँ एक सामान्य मनुष्य की तरह सोच रहा है कि “मेरे प्रियजन ही मेरा संसार हैं।”
जब मन संबंधों से बंधा होता है, तो वह मोह में फँस जाता है और जब मन धर्म कर्तव्य से जुड़ता है, तब ही सच्चा वैराग्य संभव होता है।
भगवद्गीता (अध्याय 1, श्लोक 33)
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥३३॥
शब्दार्थ:
- ते इमे = वे ये सभी
- अवस्थिताः युद्धे = के लिए तैयार हैं
- प्राणान् त्यक्त्वा = अपने प्राणों को त्यागने को तैयार
- धनानि च = और धन को भी
- आचार्याः = गुरुजन
- पितरः = पिता समान जन
- पुत्राः = पुत्र
- तथैव च = और इसी प्रकार
- पितामहाः = जैसे भीष्म
अर्थ:
देखो, हे कृष्ण ! ये सब – गुरुजन, पिता, पुत्र और पितामह: अपने प्राणों और धन की परवाह किए बिना युद्धभूमि में खड़े हैं। वे सब युद्ध करने के लिए तत्पर हैं।
जिनसे मैंने शिक्षा पाई, जिनका आदर करता हूँ, जिनके साथ मैंने प्रेम और संबंध बनाए, क्या आज उन्हीं के प्राण लूँ? यहाँ से स्पष्ट होता है कि अर्जुन का मोह धार्मिक या आध्यात्मिक वैराग्य नहीं, बल्कि भावनात्मक भ्रम है। वह धर्मयुद्ध को व्यक्तिगत द्वेष समझ बैठा है।
अर्जुन की दृष्टि इस समय केवल रक्त-संबंधों और भावनाओं तक सीमित हो गयी है
जब मन संबंधों में उलझ जाता है, तब कर्तव्य और करुणा के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥३४॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥३५॥

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